जो छोड़ आया या फ़िर हृदय में जिसे धरूँ।
आसानियों के चक्कर में,कठिनाई छोड़ आया
लगती थी जो परेशानियाँ,उनसे मुँह मोड़ आया।
किस पहाड़ ओ गाँव की बात करूँ।।
बचपन बीता जिस मिट्टी में, खेले-कूदे खेतों पर
उस बचपन की वह अमीरी,पूरा गाँव था अपना घर।
अर्थ इकट्ठा करने को वह सब बिसरा आया
नया अर्थ देने जीवन को, पुराना सबकुछ छोड़ आया।।
किस पहाड़ ओ गाँव की बात करूँ।।
बिसरा नहीं हूँ कुछ भी मैं, याद बहुत-कुछ आता है।
एक शब्द 'पहाड़ ओ गाँव'अपनापन ही देता हेै।
इस अपनेपन के ऋण को मैं, कैसे यूँ ही विस्मृत कर दूँ।
मेरे पूर्वजों की वह मेहनत, बयॉं करता है आज भी।
किस पहाड़ ओ गाँव की बात करूँ।।
खेतों का वह हल पर लगता पत्थर वह-
क्रुक की ध्वनि आज भी कानों में गूँजा करती है।
वह खेतों में खाना-खाना वह खेतों में पीना चाय
मिट्टी के कणों का अनायास ही मुँह में जाना
इस भरी सादगी को मैं भी, दिखावे में शायद छोड़ आया
किस पहाड़ ओ गाँव की बात करूँ
जो छोड़ आया या फ़िर हृदय में जिसे धरूँ।
किस पहाड़ ओ गाँव की बात करूँ......?
स्वरचित एवं मौलिक- गोविन्द पाण्डेय, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड
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