एक समय था वह बचपन का,
खेला करते थे पिड्डू।
कभी खेलते थे हम कंचे
कभी खेलते थे अड्डू।।
कभी घिसड़ते पिथोरो पर तो
कभी घिसड़ते मिट्टी में।
कभी भागते लुक्का-छुप्पी,
कभी भागते चुप्पी में।।
गांव का वह भोलापन था,
कपड़ों पर थी टल्ली।
नहीं किसी को थी चालाकी
चाल हमारी रही निठल्ली।।
इसी निठल्ली चाल में प्यारे,
हमने अल्हडपन देखा है।
जब से आई समझ हमने तो-
मरता बचपन देखा है।।
पाटी, खड़िया और कमेट
साथ रहती थी बचपन में।
पूरा गांव था अपना घर ही,
वह दिन लगते अब सपनेपन में।
स्वरचित- गोविन्द पाण्डेय, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड।
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