हेै सदी इक्कीसवीं
उम्र भी इक्कीस हो रही हेै।
उम्र थी जब बीस आई
चहुँ ओर घटा घनी थी छाई।
इस घटा को इस उमर में
मिलके दूर कर ही लेंगे।
इस अंधेरे दौर में भी
सम्भल के आगे बढ़ ही लेंगे
फिर खुद को संजो ही लेंगे।।
यह जो है वक्त चल रहा
कदम-कदम पर छ्ल रहा
इस छलावे में जो बचेगा
नवयुग का निर्माण करेगा
इस निर्माण में हम भी
अपना सहयोग तो देंगे।
फिर खुद को संजो ही लेंगे।
है दिख रहा अंधकार घुप्प
और सन्नाटा है सब ओर चुप
इस सन्नाटे के आगोस में भी
नवसृजन का आगाज़ कर ही लेंगे
फिर ख़ुद को संजो ही लेंगे।
उम्मीद की किरण दूर है तो क्या हुआ
समय के साथ इस किरण को
सब ओर मिलके हम बिखेर लेंगे
फिर खुद को संजो ही लेंगे।
स्वरचित- गोविन्द पाण्डेय, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड।
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