हिंदी कविता गरीबी

 हिंदी कविता           

गरीबी  

            बातें अपने अन्तर्मन से 

सर्दी की वो रात थी, जा रही थी रेल से बेटी को होस्टल छोड़ने |

उसे उसके सपनों के साथ जोड़ने| 

सो रहे थे गहरी निंदा मे खो गए थे सपनों की दुनिया में |

तभी एक आवाज ने मुझे जगा दिया 

सच्चाई से अवगत करवा दिया |

जिन्दगी के दूसरे पहलू को दिखा दिया |

जो लोग देखकर भी नही देखते मुझे ऐसा मंजर दिखा दिया |

रात को जब सारे सो रहे थे सुख की नींद से वह जग रही थी अपने परिवार की फिक्र से | 

अभावों मे पली-बडी सर्दी की मार को भी झेलती हुई 

मेरे साथ की सीट पर बैठी एक युवती से बोली   

दीदी ये गुच्छा फूलों का ले लो और पचास रूपए दे दो |

भाई है चलने से लाचार , माँ- बाप भी घर में पड़े हैं बीमार |

मैने उसे मन ही मन घुटते और तरसते देखा |

परिवार के लिए छोटे- छोटे को पैसे गिनते देखा |

एक मासूम सी की आँखों में खुशियो को मिटते देखा |

चाह नही थी उसे अच्छे भोजन की, नए कपड़ो की |

उसे बासी भोजन खाते और वही मैले कपड़े साफ करते देखा |

बहुत छोटी सी उम्र मे उसके जमीर को पलते देखा |

पैर में न थे उसके जूते , पहना था स्वेटर पुराना 

सादगी ही था उसका गहना |

जिसे चमकना चाहिए था आसमान में, 

फूल बनना चाहिए था अपनी बगिया का, 

चिडिया बन चहचहाना था जिसे खुले गगन में | 

जिस उम्र में बच्चे रुठते हैं अपनी मनपसंद चीजो को पाने के लिए, 

हाय, दैव की गति देखो; वह दौड रही थी परिवार के पालने के लिए | 

पंख गरीबी ने उसके कुचल डाले |

खिलौनों की जगह बेचने को फूल दे डाले |

उस को जरुरत थी जब माता -पिता के लाड प्यार की 

तब बेटी का फर्ज निभा, रहकर खाली पेट; खुद उनको पालने लगी |

उसे देख मेरे अन्त: मन ने मुझे रुलाया, 

मैने उसे बुलाया और पूछा कितने में दोगी ये सब फूल, 

बोली पांच सौ में ले लो मैडम ये सारे फूल |

जैसे ही लिए मैने उससे फूल उसका चेहरा खिल गया | 

उसके खिलते चेहरे को देख मेरा मन भी प्रसन्न हुआ |

मेरे अन्त: मन से आवाज आई क्या इस बच्ची का कोई अरमान नही ?

जो देख रहे थे उसे घृणित नजरों से क्या उनका कोई ईमान नही ? 

दाने -दाने को तरसने वाले ही उगाते है दालें,  

बनाते है चकाचौंध करने वाली इमारते, अपने हाथों में करके छाले |

प्रदर्शनी लगाकर ,अखबारों में गरीबी पर लिखकर आर्टिकल जो वाह-वाह करते है 

गरीबों की भूख, उनके अश्रु ,उनकी लाचारी की बना तस्वीरें दर्शको को ठगते हैं 

मैं रखती हूँ बस इतनी चाह, इनको इन्सान मान लो, 

इनका भी होता है स्वाभिमान यह जान लो|

हम समझेगे तो जग समझेगा इन गरीबों की परिभाषा ,

हम जागेगे तो जगेगी गरीबो के मन की आशा ||

स्व रचित कविता  

मीनू सरदाना

गुरुग्राम


निम्नलिखित कविताएँ भी पढ़िए 

* बेटी बचाओ 

* स्वतंत्रता की खोज 

* हमारे बापू 

* 2 अक्टूबर : भारत के दो लाल 

* बेटी 

* संस्कृति और परम्पराओं का देश भारत 

* ज़िंदगी 

About Gouri

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

Please donot push any spam here.